The Warrior Baba Deep Singh Ji
आप जब भी सिख समुदाय के लोगो को देखते है तो आपके मन में क्या खयाल आता है? कुछ लोग सिख यानी पंजाबियों को काफी गुस्सैल और गरम दिमाग का समझते है तो कुछ उनकी भक्ति और अपनी गुरु की साधना करते देखते है तो उन्हें उस समय उनसे ज्यादा विनम्र कोई नही लगता।
पंजाब की धरती शूरवीरों की जन्मस्थली मानी जाती है। पंजाब के इतिहास में अनेकों ऐसे योद्धा मिल जाएंगे, जिनकी बहादुरी के क़िस्से आज भी मशहूर हैं। ऐसा ही एक किस्सा हुआ जब 17वीं सदी में पंजाब की पावन धरती पर एक ऐसे ही शूरवीर ने जन्म लिया, जिनका नाम बाबा दीप सिंह (Baba Deep Singh) था। वो इतिहास के एक मात्र ऐसे शुरवीर योद्धा थे, जो युद्धभुमि में सिर कटने के बाद भी उसे हथेली पर रख कर दुश्मन से लड़ते रहे। बाबा दीप सिंह जी ने युद्ध के दौरान अपने शौर्य और साहस से मुगलों को घुटनों पर ला दिया था। बाबा दीप सिंह के नाम से ही दुश्मन थर-थर कांपने लगते थे।
बात 17वीं सदी की है। अमृतसर (Amritsar) के पहुविंड (Pahuwind) गांव में किसान भगतु भाई(Bhagatu Bhai) अपने परिवार के साथ रहते थे। भगवान की कृपा से भगतु भाई के घर में किसी चीज की कमी नहीं थी, सिवाय एक औलाद के भगतु भाई और उनकी पत्नी जिओनी(Jioni) जी हमेशा भगवान से यही प्रार्थना करते थे कि उन्हें अपने जीवन में संतान सुख प्राप्त हो। एक दिन एक संत महात्मा से उनकी भेंट हुई, जिसने उन्हें बताया कि उनके यहां एक बेहद गुणवान बच्चा पैदा होगा और उसका नाम वह दीप रखें।
आख़िरकार भगवान ने भगतु भाई और जिओनी जी की फ़रियाद सुन ही ली। 26 जनवरी(January) 1682 को उनके घर बेटे जन्म लिया, नाम रखा दीप सिंह। एकलौता बेटा होने के चलते माता पिता ने दीप सिंह को बहुत लाड़ प्यार से पाला। जब दीप सिंह जी 12 साल के हुए, तो उनके माता पिता उन्हें आनन्दपुर साहिब(Anandpur Sahib) ले गए।जहां पहली बार उनकी मुलाकात सिखों के 10वें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह(Guru Gobind Singh Ji) जी से हुई। इस दौरान दीप सिंह अपने माता पिता के साथ कुछ दिन वहीं रहे और सेवा देने लगे।
इसके कुछ दिनों बाद जब वो गांव वापस लौटने लगे, तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीप के माता-पिता से उन्हें यहीं छोड़ जाने को कहा। और आखिरकार दीप सिंह जी गुरु की बात कैसे टाल सकते थे। इसलिए दीप सिंह के माता-पिता फौरन मान गए। आनन्दपुर साहिब में दीप सिंह ने गुरु जी के शिक्षा में सिख दर्शन और गुरु ग्रंथ साहिब(Guru Granth Sahib) का ज्ञान अर्जित किया। इस दौरान उन्होंने गुरुमुखी (GuruMukhi) के साथ-साथ कई अन्य भाषाएं भी सिखी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने उन्हें खुद घुड़सवारी और हथियारों की शिक्षा भी दी।
18 साल की उम्र में उन्होंने गुरु जी के हाथों से बैसाखी(Baisakhi) के पावन मौके पर अमृत चखा और शपथ ली। इसके बाद गुरु जी के आदेश से बाबा दीप सिंह जी अपने गांव वापस लौट गए। एक दिन बाबा दीप सिंह जी के पास गुरु जी का एक सेवक आया, उसने बताया कि गुरु जी आनन्दपुर साहिब का क़िला छोड़ ‘हिंदु पहाड़ी’ के राजाओं के साथ युद्ध के लिए कूच कर गए हैं। इस युद्ध के चलते गुरु जी की मां माता गुजर गई और उनके 4 पुत्र उनसे बिछड़ गए हैं। ये ख़बर सुनते ही बाबा दीप सिंह जी फौरन गुरु जी से मिलने के लिए निकल पड़े।
काफ़ी तालाश के बाद आख़िरकार तलवंडी(Talwandi) के दमदमा साहिब(Damdama Sahib) में बाबा दीप सिंह और गुरु जी की मुलाकात हुई। इस दौरान बाबा दीप सिंह जी को पता चला कि गुरु जी के दो पुत्र अजीत सिंह(Ajeet Singh) और जुझार सिंह(Jujhar Singh) ‘चमकौर'(Chamkaur) के युद्ध में शहीद हो गए हैं, जबकि उनके दो छोटे पुत्र ज़ोरावर सिंह(Zoravar Singh)और फतेह सिंह(Fateh Singh) का सरहिंद में वजीर ख़ान(Wazir Khan) ने बेदर्दी से कत्ल कर दिया है।
सन 1755 में जब भारत में मुगलों का आतंक बढ़ने लगा तो लाचार लोगों की चीख पुकार सुन बाबा दीप सिंह जी विचलित हो उठे। इस दौरान अहमद शाह अब्दाली(Ahmed Shah Abdali) के सेनापति जहान ख़ान(Jahan Khan) ने भारत में बड़ी तबाही मचाई थी। वो 15 बार भारत आकर यहां लूट पाट मचा चुका था। दिल्ली समेत आसपास के कई इलाक़ों से उसने न सिर्फ़ सोना, हीरा व अन्य चीजें लूटीं, बल्कि हज़ारों लोगों को बंदी बना कर अपने साथ ले गया।
जब बाबा दीप सिंह जी को इस बात का पता चला तो वो अपनी एक सैनिक टुकड़ी लेकर अब्दाली के छिपे ठिकाने पर जा पहुंचे। इस दौरान उन्होंने न केवल बंदी बनाए लोगों की जान बचाई, बल्कि लूटे गए सामान को भी वापस ले आए। जब इसकी जानकारी अब्दाली को दी गयी तो वो आगबाबुला हो उठा। इस दौरान उसने कसम खाई कि वो सिख समुदाय को पूरी तरह से मिटा देगा।
सन 1757 में अब्दाली का सेनापति जहान ख़ान अपनी फ़ौज़ के साथ हरिमंदिर साहिब(Harmandir Sahib) को तबाह करने के लिए अमृतसर पहुंच गया। इस दौरान कई सिख सैनिक हरिमंदिर साहिब को बचाते हुए मारे गए। जब बाबा दीप सिंह को इस हमले के बारे में जानकारी मिली तब वो ‘दमदमा साहिब’ में थे। इसके बाद उन्होंने फौरन अपनी सेना के साथ अमृतसर के लिए कूच की।
अमृतसर सीमा पर पहुंचते ही बाब दीप सिंह ने ऐलान किया कि इस सीमा को केवल वही सिख पार करें, जो पंथ की राह में शीश कुर्बान करने के लिए तैयार हैं। पंथ के लिए आह्वान सुनते ही सभी सिख पूरे जोश के साथ आगे बढ़ चले। आख़िरकार 13 नवंबर 1757 को अमृतसर के गोहरवाल गांव(Goharwal Gaau) में बाबा दीप सिंह और अहमद शाह अब्दाली की सेनाएं एक-दूसरे के आमने-सामने थीं। युद्ध का बिगुल बजते ही बाबा दीप सिंह अपनी 15 किलो वजनी तलवार के साथ दुश्मन पर टूट पड़े।
इस बीच अचानक मुगल कमांडर जमाल ख़ान(Jamal Khan), बाबा जी के सामने उतरा गया। इस दौरान दोनों के बीच काफ़ी लंबा युद्ध चला। इस युद्ध के समय बाबा दीप सिंह की उम्र 75 साल थी। जबकि जमाल ख़ान केवल 50 साल का था। इस दौरान इन दोनों योद्धाओं ने पूरी ताकत से अपनी-अपनी तलवार घुमाई, जिससे दोनों के सिर धड़ से अलग हो गए। बाबा जी का शीश अलग होता देख एक सिख सैनिक ने चिल्लाते हुए बाबा जी को आवाज़ दी और उन्हें उनकी शपथ के बारे में याद दिलाया।
इसके बाद बाबा दीप सिंह जी का धड़ एक दम से खड़ा हो उठा और उन्होंने अपना सिर उठाकर अपनी हथेली पर रखा और अपनी तलवार से दुश्मनों को मारते हुए श्री हरिमंदिर साहिब की ओर चलने लगे। बाबा जी के हौसले को देख जहां सिखों में जोश भर गया, वहीं दुश्मन डर के मारे भागने लगे। अंत में कटे हुए सिर के साथ ही बाबा दीप सिंह जी ‘श्री हरिमंदिर साहिब’ पहुंचे और अपना सिर परिक्रमा में चढ़ा कर प्राण त्याग दिए।
अगर आप अपने धर्म का सच्चे दिल से सम्मान करते है तो आपको किसी भी तरह की गलत गतिविधियां बर्दाश नही होंगी, क्युकी धर्म चाहे कोई भी हो, वो कभी भी किसी को प्रताड़ित करने की सीख नही देता है, पर धर्म के अपमान और अभंगता पर दुश्मन का धरती पर पटक देने का साहस जरूर देता है।