Global Warming Due to Non-Veg | मांसाहार से ग्लोबल वार्मिंग

Global Warming Due to Non-Veg

                 क्या आप नॉन वेज(NonVeg) खाते हैं? अगर हां, तो क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा करके आप ग्लोबल वॉर्मिंग(Global Warming) बढ़ा रहे हैं? जैसा की हम सब सुनते आए है की नॉनवेज बॉडी को nutrition  देने के लिए कितना महत्वपूर्ण होता है पर हम हमेशा एक तरफा ही सुनते है।

                 नॉनवेज का ग्लोबल वार्मिंग से भी कोई संबंध है ये बात सुनने में यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है पर दोनों में गहरा संबंध है। हमारी टेबल पर सजा लज़ीज़ नॉन वेज खाना हमारी हेल्थ पर चाहे जो प्रभाव डाल रहा हो लेकिन पर्यावरण पर तो इसका बहुत बुरा असर हो रहा है। असल में पूरी दुनिया में नॉन वेज (मांसाहार) की संस्कृति का प्रसार पूरी दुनिया में European Culture स्थापित करने की भावना से जुड़ा है। Financial development और industrialisation ने पिछले 200 साल में नॉनवेज फूड कल्चर को पॉप्युलर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

                 Growing Countries ने Development aur lifestyle के western modal के मोह में फंस कर इसे अपनाया है। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस व पशुपालन उद्योग फल-फूल रहा है। 

Example के लिए पहले चीन(China) में Porks (सूअर का मांस) सिर्फ वहां का एलीट क्लास खाता था, लेकिन आज वहां का poor section भी अपने रोज के खाने में उसे शामिल करने लगा है। यही कारण है कि चीन द्वारा पोर्क्स के import में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। भारत में भी नॉन वेज खाना status symbol बनता जा रहा है।

                 जिन states aur classes में prosperity and external contact वहा भी मीट और नॉनवेज खाने वाली की संख्या में इजाफा हुआ है। इस कारण हमारे ट्रैडिशनल फूड को काफी इग्नोरेंस मिली है। पहले गांवों में कुपोषण दूर करने में दालो, सरसो के तेल और गुड़ की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन आज खेती की modern methods व खानपान में इन तीनों की काफी इग्नोर किया गया है। 

                 गौरतलब है कि 1961 में दुनिया की कुल मीट सप्लाई लगभग 7 करोड़ टन थी जो 2008 में बढ़कर 28 करोड़ टन से भी ज्यादा हो गई। इस दौरान global level पर per person meat का average consumption दुगना हो गया। पर गौर करने की बात है कि progressive countries में यह अधिक तेजी से बढ़ा और मात्र 20 साल में ही per person consumption दोगुने से अधिक हो गया।

                 मांस की खपत बढ़ाने में Mechanicalised Animal Husbandry ने एक important role प्ले किया। हमारे यहां पहले भी पशुपालन होता था, लेकिन वह गांव-जंगल और खेती पर आधारित होता था। उसकी productivity कम थी, इसलिए वह महंगा पड़ता था। मगर इसका लाभ यह था कि इस method में खेती, मनुष्य के भोजन और पशु आहार में कोई टकराव नहीं होता था। modern animal husbandry में छोटी सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है।

                 उन्हें सीधे cereals, oilseeds और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंसकर खिलाया जाता है, ताकि जल्द से जल्द उनसे ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इससे बड़े पैमाने पर मीट का उत्पादन होता है, जिससे वह सस्ता पड़ता है। 

                 इस आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति व मनुष्य से भारी कीमत वसूल की है। इसमें पशु आहार तैयार करने के लिए chemical fertilizers, pesticides और  पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। इससे पानी का संकट, air aur water pollution, मिट्टी की fertility में गिरावट जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। Modern animal husbandry ने maize and soybean cultivation का जोरो शोरोंसे कारोबार बढ़ाया है।

                 आज दुनिया में पैदा होने वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, ताकि उनका मांस खाया जा सके, जबकि दूसरी तरफ भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका में तो दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है। 

                 विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की मांस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18000 बच्चों व 6000 adults का जीवन बचा सकती है। 

Intensive housing,  animal feed, hormones medicines और chemicals से हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। पशुपालन के इन artificial methods ने ही मैड काऊ(Mad Cow), बर्ड फ्लू(Bird Flu) व स्वाइन फ्लू (Swine Flu) जैसी नई महामारियां पैदा की हैं।

                 मांस उत्पादन में फूड stuffs की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90%Protein, 99% Carbohydrates और 100% Fiber नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहां मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने ही मांस के लिए 10,000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है।

                 स्पष्ट है कि modern industrial animal husbandry के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए काफी जमीन और संसाधनों की जरूरत होती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई land pasture और animal feed तैयार करने में लगा दी गई है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी, वैसे-वैसे पशु आहार की खेती बढ़ती जाएगी, और इससे ग्रीनहाउस गैसों में तेजी से बढ़ोतरी होगी। 

                 Food And Agricultural Organization  (FAO) के अनुसार animal husbandry sector global greenhouse gases में 18% contribute करता है जो कि transport sector से अधिक है। पशुपालन के कारण ग्लोबल टेम्प्रेचर(Global Temperature) भी बढ़ा है। असल में दुनिया भर मे pasture और animal feed की खेती के लिए forests को काटा जा रहा है। एफएओ के अनुसार latin america में 70% forest land pastures में बदल दिया गया है। पेड़- पौधे carbon dioxide के absorbent होते हैं।

                 पेड़ों के कम होने से atmosphere में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है जिसके कारण तापमान में भी बढ़ोतरी होती है। ऐनिमल वेस्टेज(Animal Wastage) से नाइट्रस ऑक्साइड(Nitrous Oxide)नामक ग्रीनहाउस गैस निकलती है जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 296 गुना जहरीली है। गौ पालन के कारण मिथेन (Methane) उत्पादन होता है, जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 23 गुना खतरनाक है। 

                 पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश(Jairam Ramesh) ने इसीलिए कहा था कि यदि दुनिया beef (गाय का मांस) खाना बंद कर दे तो carbon emission में dramatically decrease देखने को मिलेगा और ग्लोबल वॉर्मिंग में बढ़ोतरी धीमी हो जाएगी। सौभाग्य की बात है कि भारत में बीफ का ज्यादा चलन नहीं है। 

                 वैसे आपका ये जान लेना भी जरूरी है की मांस के ट्रांसपोर्टेशन और उसे पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले fuel से भी ग्रीन हाउस गैस का emission होता है। इतना ही नहीं, जानवरों के मांस से भी कई प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें पैदा होती हैं जो वातावरण में घुलकर उसके तापमान को बढ़ाती हैं।

                 डेनमार्क की कैपिटल Copenhagen ने एक conference में पर्यावरण की पर एक statement में ये साफ कर दिया है की फिलहाल तो वे कार्बन एमिशन की कटिंग के लिए लीगल obligation accept करने के लिए तैयार नहीं है। यह भी तय हो गया कि इमिशन में स्वैच्छिक कटौती तब तक संभव नहीं होगी जब तक कि जन-जन इसके लिए प्रयास न करे। इस दिशा में मांसाहार में कटौती एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। ग्रीन हाउस एमिशन कम करने के बाकी उपायों की तुलना में यह सबसे आसान है।

क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

                 क्या हम सब खाने की प्रति अपने नजरिया बदलने की लिए तैयार है?  इस पूरी खबर और प्रक्रिया पर आप की क्या टिप्पणी है, हमे कमेंट कर के जरूर बताएं।

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