सियाचिन दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र है, जहां मातृभूमि की रक्षा में हिंदुस्तानी सेना के जवान जी-जान से डटे रहते हैं। यहां जिंदगी कितनी मुश्किल है, इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि पिछले 30 साल में हमारे 846 जवानों ने प्राणों की आहुति दी है। बेहद खतरनाक मौसम के बावजूद देश के 10 हजार जवान इस बर्फीली चोटी पर दिन रात डेरा जमाए रहते हैं और दुश्मन देश के नापाक मंसूबे को नाकाम करते हैं।
सियाचिन में सबसे बड़ी समस्या अंगों के जमने की है। शरीर का जो हिस्सा किसी मेटल के संपर्क में आता है, पलक झपकते ही वह जम या कट जाता है. फिर उसे दुरुस्त करना काफी मुश्किल काम है. ठंड से अंगों के कटने का भी खतरा होता है जिसे शीतदंश या फोर्स्टबाइट कहते हैं. दुश्मन देश की गोलियों से ज्यादा खतरा हमारे सैनिकों को शीतदंश का होता है. इसलिए जवानों को ऐसे कपड़े मुहैया कराए जाते हैं जो इस खतरे को टाल सकें. बेहोशी और बराबर सिरदर्द बने रहना यहां की दूसरी सबसे बड़ी समस्या है।
दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर में तैनात भारतीय सैनिकों को अत्यधिक ठंड की स्थिति में बचाव के लिए लगभग एक लाख रुपये कीमत की एक निजी किट दी जा रही है। सेना के सूत्रों ने बताया कि, सर्दियों के दौरान सुरक्षा के लिए व्यक्तिगत किट के साथ, प्रत्येक सैनिक को जीवित रहने के लिए लगभग 1.5 लाख रुपये के उपकरण भी मिलते हैं। जिसकी मदद से वह अपनी तैनाती के दौरान सियाचिन ग्लेशियर के चारों ओर घूम सकें।
किट में होता है यह सामान
सैनिकों को दी जाने वाली पर्सनल किट में सबसे महंगे सामानों में उन्हें भयंकर सर्दी से बचाने वाले मल्टीलेयर कपड़े भी शामिल होते हैं। जिनकी कीमत लगभग 28 हजार रुपए है। वहीं उन्हें सोने के लिए दिए जाने वाले स्लीपिंग बैग की कीमत 13 हजार रुपए है। डाउन जैकेट और सैनिकों के विशेष दस्ताने की कीमत लगभग 14,000 रुपये है। जबकि बहुउद्देशीय जूते की कीमत लगभग 12,500 रुपये है। सैनिकों को प्रदान किए जाने वाले उपकरणों में, 50,000 रुपये कीमत का एक ऑक्सीजन सिलेंडर भी शामिल होता है। इस उंचाई वाले इलाके में उन्हें ऑक्सीजन देने में मदद करता है।
हर फौजी के साथ 20-30 किलो का बैग भी होता है जिसमें बर्फ काटने वाली एक कुल्हाड़ी, उसके हथियार और रोजमर्रा के कुछ सामान होते हैं। शून्य से नीचे तापमान रहने के बावजूद सैनिक पसीने से तरबतर होते हैं क्योंकि शरीर पर 6-7 तह मोटे और गर्म कपड़े होते हैं। सैन्य पोस्ट पर पहुंचते पहुंचते फौजियों के शरीर और कपड़े के बीच पसीने की पतली परत जम जाती है। गर्मी बढ़ने के साथ इसके टूटने की आवाज सुनी जा सकती है।
खाने में लिक्विड ज्यादा उपयोग होता है
खाने के सामान टीन के कैन में सप्लाई होते हैं।सूप पीना हो तो पहले उसे पिघलाना पड़ता है। टीन का कैन भी जम गया होता है इसलिए पहले उसे आग पर रखकर नर्म करते हैं. सूप के पिघलते ही जितनी जल्द हो सके उसे पीना पड़ता है क्योंकि शून्य से नीचे तापमान पलभर में उसे फिर जमा देता है. मौसम की हालत ये होती है कि कुछ ही समय में तापमान शून्य से 60 डिग्री नीचे तक चला जाता है और बर्फीला तूफान ऐसा कि पलक झपकते ही सेना की पूरी टुकड़ी काल के गाल में समा सकती है
दूध के कैन को खोलने में 40 मिनट तक का वक्त लग जाता है क्योंकि हाथ इतने बंधे होते हैं और उस पर कपड़े की इतनी मोटी तह होती है कि डिब्बे को पकड़ना इतना आसान काम नहीं होता। चॉकलेट और सूखे मेवे सैनिकों के लिए काफी मुफीद माने जाते हैं क्योंकि वो बर्फ में जमते नहीं और जम भी जाएं तो उन्हें पिघलाने की जरूरत नहीं पड़ती। पानी के लिए अलग से कोई सुविधा नहीं होती क्योंकि जवानों को बर्फ पिघला कर ही पीना होता है। इसमें भी सावधानी बरतनी होती है क्योंकि बर्फ भी दूषित हो सकता है।
चौकियों पर जाने वाले सैनिक एक के पीछे एक लाइन में चलते हैं और एक रस्सी सबकी कमर में बंधी होती है। कमर में रस्सी इसलिए बांधी जाती है क्योंकि बर्फ कहाँ धंस जाए इसका पता नहीं रहता और अगर कोई एक व्यक्ति खाई में गिरने लगे तो बाकी लोग उसे बचा सकें। ऑक्सीजन की कमी होने की वजह से उन्हें धीमे-धीमे चलना पड़ता है और रास्ता कई हिस्सों में बंटा होता है। साथ ही ये भी तय होता है कि एक निश्चित स्थान पर उन्हें किस समय तक पहुंच जाना है और फिर वहां कुछ समय रुककर आगे बढ़ जाना है। हजारों फुट ऊंचे पहाड़ या हजारों फुट गहरी खाइयां, न पेड़-पौधे, न जानवर, न पक्षी।
इन हालात में सैनिक कपड़ों की कई तह पहनते हैं और सबसे ऊपर जो कोट पहनते हैं उसे “स्नो कोट” कहते हैं। इस तरह उन मुश्किल हालात में कपड़ों का भी भार सैनिकों को उठाना पड़ना है। वहां टेंट को गर्म रखने के लिए एक खास तरह की अंगीठी का इस्तेमाल किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में बुखारी कहते हैं। इसमें लोहे के एक सिलिंडर में मिट्टी का तेल डालकर उसे जला देते हैं। इससे वो सिलिंडर गर्म होकर बिल्कुल लाल हो जाता है और टेंट गर्म रहता है। सैनिक लकड़ी की चौकियों पर स्लीपिंग बैग में सोते हैं, मगर खतरा सोते समय भी मंडराता रहता है क्योंकि ऑक्सीजन की कमी की वजह से कभी-कभी सैनिकों की सोते समय ही जान चली जाती है।
इस स्थिति से बचाने के लिए वहां खड़ा संतरी उन लोगों को बीच-बीच में उठाता रहता है और वे सभी सुबह छह बजे उठ जाते हैं। वैसे उस ऊंचाई पर ठीक से नींद भी नहीं आती। वहां नहाने के बारे में सोचा नहीं जा सकता और सैनिकों को दाढ़ी बनाने के लिए भी मना किया जाता है क्योंकि वहां त्वचा इतनी नाजुक हो जाती है कि उसके कटने का खतरा काफी बढ़ जाता है और अगर एक बार त्वचा कट जाए तो वो घाव भरने में काफी समय लगता है। वहां लगभग तीन महीने सैनिक तैनात रहते हैं और उस दौरान वो बहुत ही सीमित दायरे में घूम फिर सकते हैं। संघर्ष विराम होने के कारण सैनिकों के पास वहां ज्यादा काम भी नहीं रहता और उन्हें बस समय गुजारना होता है। इसलिए जब हर तरफ सिर्फ बर्फ ही बर्फ या खाइयां हों तो ऊबना भी स्वाभाविक हो जाता है। सियाचिन पर बनी सैनिक चौकियों की जीवन रेखा के रूप में काम करती है वहां वायु सेना।
उन चौकियों पर जो हेलिकॉप्टर उतरता है उसे चीता का नाम दिया गया है। सेना का कहना है कि उन्हें जिन ऊंचाइयों पर रहना होता है वहां सिर्फ वही हेलिकॉप्टर काम कर सकता है। सबसे ऊंचाई तक जाने और सबसे ऊंचाई पर बने हेलिपैड पर लैंड करने वाले हेलिकॉप्टर का रिकॉर्ड इसी के नाम है। संघर्ष विराम से पहले सीमा के नजदीक बनी चौकियों तक हेलिकॉप्टर ले जाने में काफी सावधानी बरतनी होती थी।
चीता हेलिकॉप्टर उन चौकियों पर सिर्फ 30 सेकेंड के लिए ही रुकता है। संघर्ष विराम से पहले ये इसलिए किया जाता था जिससे विरोधी पक्ष जब तक निशाना साधेगा तब तक हेलिकॉप्टर उड़ जाएगा। मगर अब भी वही प्रक्रिया अपनाई जाती है जिससे सेना किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहे। सैनिकों को दूसरी जगहों से लाकर जब सियाचिन पर तैनात किया जाता है तो उससे पहले उन्हें इतने ठंडे मौसम के अनुरूप खुद को ढालने के लिए तैयार किया जाता है। सैनिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे सिर्फ एक सैनिक ही न होकर इन परिस्थितियों में एक पर्वतारोही की तरह काम करें। मनोरंजन का भी वहां कोई साधन नहीं है। यानी पहाड़ों के बीच पहाड़ सी मुश्किलों के साथ चल रहा है सैनिकों का जीवन।