History of Jammu and Kashmir | जम्मू और कश्मीर का इतिहास

History of Jammu and Kashmir

               जैसा की आप सब जानते है की कश्मीर अखंड भारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, पर आज भी कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, पर क्या आप जानते है की एक समय अखंड भारत की शान और अफगानिस्तान की सीमाओं तक फैला हुआ कश्मीर, आज ऐसा कैसा हो गया?

               भारत की तरह ही कश्मीर में भी इस्लाम के आगमन की कहानी इतिहास से पहले मिथकों के रूप में शुरू होती है. ख्वाजा मोहम्मद आज़म दीदामरी नाम के सूफ़ी लेखक ने फारसी में ‘वाक़यात-ए-कश्मीर’ नाम से 1747 में एक किताब प्रकाशित की जिसकी कहानियां पौराणिक कथाओं की तर्ज़ पर लिखी गई थीं.

               इसमें बताया गया है कि राक्षस जलदेव इस पूरे क्षेत्र को पानी में डुबोए रखता है. इस कहानी का नायक ‘काशिफ़’ है, जिसे वह किसी मारिची का बेटा बताता है. काशिफ़ महादेव की तपस्या करता है और फिर महादेव के सेवक ब्रह्मा और विष्णु जलदेव का दमन कर काशिफ़-सिर के नाम से इस क्षेत्र को रहने लायक़ बनाते हैं. विद्वान मानते हैं कि यह काशिफ़ वास्तव में कश्यप ऋषि की कहानी है, जिसमें घालमेल कर उसे जाने-अनजाने मुस्लिम जैसा साबित करने की कोशिश हुई है.

               ‘वाक़यात-ए-कश्मीर’ लिखने वाले आज़म के बेटे बदी-उद-दीन इस मिथकीय कहानी को और भी दूसरे स्तर पर लेकर चले गए. उन्होंने तो इसे सीधे आदम की कहानी से जोड़ दिया.

               उनके मुताबिक़ कश्मीर में शुरू से लेकर 1100 साल तक मुसलमानों का शासन था जिसे हरिनंद नाम के एक हिंदू राजा ने जीत लिया. उनके मुताबिक़ कश्मीर की जनता को इबादत करना स्वयं हज़रत मूसा ने सिखाया. उनके मुताबिक़ मूसा की मौत भी कश्मीर में ही हुई और उनका मक़बरा भी वहीं है.

               दरअसल, बदी-उद-दीन ने यह सब संभवतः शेख़ नूरुद्दीन वली (जिन्हें नुंद ऋषि भी कहा जाता है) के ‘नूरनामा’ नाम से कश्मीरी भाषा में लिखे गए कश्मीर के इतिहास पर आधारित करके लिख दिया. बहरहाल, इतिहासकारों ने चेरामन पेरूमल की कहानी की तरह इन कहानियों को भी कोई महत्व नहीं दिया है.

               पृथ्वीनाथ कौल बामज़ई एक प्रसिद्ध कश्मीरी इतिहासकार हुए हैं. कहा जाता है कि उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख़ अब्दुल्लाह ने उनसे कश्मीर का विस्तृत इतिहास लिखने का अनुरोध किया था.

               1962 में प्रकाशित उनकी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर’ की भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी. तीन खंडों में लिखित ‘कल्चर एंड पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर’ इस प्रदेश के इतिहास को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत कहा जा सकता है।

इस्लाम से कश्मीर का पहला परिचय

               बामज़ई के मुताबिक़ मोहम्मद बिन-क़ासिम सिंध विजय के बाद कश्मीर की ओर बढ़े ज़रूर थे, लेकिन उन्हें कोई विशेष सफलता हाथ नहीं लगी. उनकी अकाल मृत्यु की वजह से उनका कोई दीर्घकालिक शासन भी स्थापित न हो सका. कश्मीर तक पहुंचने की दुर्गम भौगोलिक स्थिति की वजह से भी अरब वहां पहुंच पाने में असमर्थ रहे थे.

               अरबों के साथ कश्मीरी हिंदू शासकों का पहला संपर्क कार्कोट राजवंश (625 से 885 ईस्वी) के दौरान हुआ था. मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान के अपने अभियानों के दौरान इस वंश के प्रमुख राजाओं जैसे चंद्रपीड़ और ललितादित्य का सामना अरबों से हुआ और पहली बार उनका परिचय इस्लाम नाम के इस नए धर्म से हुआ.

अरबों से उन्हें इतना ख़तरा महसूस हुआ कि ललितादित्य ने चीन के सम्राट के पास अपना राजदूत भेजकर मदद मांगी थी और अरबों के ख़िलाफ़ एक सैन्य गठबंधन बनाने का अनुरोध किया था.

कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक: एक तिब्बती बौद्ध

               कश्मीर में इस्लाम के प्रसार के पूरे कालक्रम में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया जब उसे अपना पहला मुस्लिम शासक मिला. एक ऐसा मुस्लिम शासक जो वास्तव में एक तिब्बती बौद्ध थे और जिनकी रानी एक हिंदू थी.

               1318 से 1338 के बीच के बीस साल कश्मीर में भारी उथल-पुथल के रहे. इस दौर में युद्ध, षड्यंत्र, विद्रोह और मार-काट का बोलबाला रहा. लेकिन इससे ठीक पहले के बीस साल यानी 1301 से 1320 तक राजा सहदेव के शासनकाल के दौरान बड़ी संख्या में कश्मीर की जनता सूफ़ी धर्म-प्रचारकों के प्रभाव में और इन कारणों से इस्लाम को स्वीकार कर चुकी थी. अब उसे अपना पहला मुस्लिम शासक भी मिलने ही वाला था.

               बामज़ई सहित कई इतिहासकारों ने इस महत्वपूर्ण प्रकरण का विस्तार से वर्णन किया है. इस कहानी के केंद्र में तुर्किस्तान से आया एक सूफ़ी धर्म-प्रचारक है. इनका सबसे प्रचलित नाम बुलबुल शाह था जबकि इतिहासकारों ने कई अलग-अलग नामों से इनका वर्णन किया है जिनमें से कुछ नाम हैं- सैय्यद शरफ़-उद-दीन, सैय्यद अब्दुर्रहमान. बामज़ई ने एक स्थान पर इनका नाम बिलाल शाह भी बताया है.

               बुलबुल शाह सुहरावर्दी मत के सूफ़ी ख़लीफ़ा शाह नियामतुल्लाह वली फारसी के शिष्य थे. बुलबुल शाह ने कई देशों की यात्रा की थी और बग़दाद में काफ़ी समय बिताया था. इनका निजी जीवन और संवाद का तरीक़ा कश्मीरी लोगों को बहुत प्रभावित करता था. इन्होंने कश्मीर की पहली यात्रा राजा सहदेव के समय ही की थी.

               सहदेव एक कमज़ोर शासक थे और वास्तव में उनके नाम पर उनके प्रधानमंत्री और सेनापति रामचंद्र ही वास्तविक शासन चला रहे थे. रामचंद्र की सुंदर और मेधावी बेटी कोटा भी इस काम में उनकी मदद करती थी.

               इसी दौरान तिब्बत से भागा हुआ एक राजकुमार रिंचन या रिनचेन (पूरा नाम लाचेन रिग्याल बू रिनचेन) कुछ सौ सशस्त्र सैनिकों के साथ कश्मीर पहुंचा. रिंचन के पिता तिब्बती राजपरिवार और कालमान्य भूटियाओं के बीच छिड़े गृहयुद्ध में मारे जा चुके थे, लेकिन रिंचन अपनी जान बचाकर ज़ोजिला दर्रे के रास्ते कश्मीर की ओर भागने में सफल रहे थे. रामचंद्र ने रिंचन को शरण दी.

               इसी बीच स्वात घाटी से शाह मीर नाम का एक मुस्लिम सेनानायक भी अपने परिवार और सगे-संबंधियों के साथ कश्मीर पहुंचे. उन्हें किसी फ़क़ीर ने कहा था कि वह एक दिन कश्मीर के शासक बनेंगे. वह अपने इसी सपने को साकार करने यहां पहुंचे थे. रामचंद्र और सहदेव ने उन्हें भी शरण दे दी. इस तरह अब रामचंद्र, कोटा, रिंचन और शाह मीर मिलकर कश्मीर का शासन देखने लगे.

               उसी दौरान मध्य एशिया के एक तातार शासक दुलचु ने झेलम घाटी के रास्ते कश्मीर पर आक्रमण कर दिया. लड़ने की बजाय राजा सहदेव भागकर किश्तवाड़ चले गए. दुलचु ने आठ महीने तक कश्मीर में भयंकर उत्पात मचाया. रसद के अभाव में वह दर्रों के रास्ते भारत के मैदानी हिस्सों की ओर चल पड़े, लेकिन बर्फीले तूफ़ान में फंसकर वह और उनके हज़ारों सैनिक मारे गए.

               अब शासन की बागडोर रामचंद्र ने संभाल ली. दुलचु ने कश्मीर को पूरी तरह बर्बाद कर दिया था. रामचंद्र को राजा बनते देख रिंचन की भी महत्वाकांक्षा जाग उठी और उन्होंने मौक़ा देखकर विद्रोह कर दिया. उनके आदमियों ने धोखे से रामचंद्र की हत्या कर दी, अब रिंचन ख़ुद कश्मीर की गद्दी पर क़ाबिज़ हो गए. कोटा के सामने कोई चारा नहीं बचा और उन्होंने बहुत मनुहार के बाद मन मारकर रिंचन से विवाह कर लिया. रिंचन ने कोटा के भाई यानी रामचंद्र के बेटे रावणचंद्र को भी शासन में प्रमुख स्थान देकर संभवतः उसे सेनापति नियुक्त किया.

               लेकिन रिंचन अब भी ख़ुद को लामा ही मानते थे जबकि कोटा रानी चाहती थी कि वह हिंदू बन जाएं. रिंचन के समक्ष भी कश्मीरी जनता से वैधता हासिल करने की चुनौती थी ही. वह एक बार को हिंदू धर्म अपनाने को राज़ी भी हो गए.

               लेकिन यह इतना आसान नहीं था. कहा जाता है कि उस समय के कश्मीरी शैव गुरु ब्राह्मण देवस्वामी ने उन्हें हिन्दू धर्म में शामिल करने से इनकार कर दिया. इसके कम-से-कम तीन कारण गिनाए जाते हैं

  • पहला कि रिनचेन तिब्बती बौद्ध थे.
  • दूसरा कि वह अपने श्वसुर और एक हिन्दू राजा रामचंद्र के हत्यारे थे.
  • और तीसरा कि यदि उन्हें हिन्दू धर्म में अपनाया जाता तो उन्हें उच्च जाति में शामिल करना पड़ता.
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