हिंदी दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जान वाली भाषण में से एक है लेकिन अपने ही देश में ये राष्ट्रभाषा के अस्तित्व के लिए लाड रही है प्रॉब्लम है राजभाषा हिंदी को जब भी राष्ट्रभाषा बनाने की बात होती है इसके विरोध में आवाज उठाती है दरअसल ग्रह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में कहा गए हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का समय ए गया है अंग्रेज छोड़ हिंदी में ही बात करने पर उन्होंने जोर दिया इस पर रॉक के स्वर फिर से उठने लगे जिसने इस सवाल को जन्म दिया की क्या हिंदी राष्ट्रभाषा बन पाएगी जानिए क्या है
वो करण जिनकी वजह से भारत के सभी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है और जब भी इस मुद्दे को सामने लाया जाता है तो ये विवाद रूप ले लेट है हिंदी से जुड़ा था आज तक नहीं है बल्कि आजादी से पहले का है महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आए और तीन साल बाद यानी साल 1918 में उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कहीं थी गांधी जी के अलावा पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की थी
लेकिन विरोध तभी उठे थे फिर अंग्रेजन की विदाई के बाद जब देश आजाद हुआ तो आजादी के 2 साल बाद हिंदी को राजभाषा अंदर जा 14 सितंबर 1949 को मिला लेकिन राष्ट्रभाषा को लेकर लंबी बहस चली और नतीजा कुछ नहीं निकाला संविधान बनाते समय भी खड़ा हुआ विवाद आपको बता दें की 1940 से 1949 तक संविधान को बनाने की तैयारी शुरू कर दी गई संविधान में हर पहलू को लंबी बहस से होकर गुजरा पड़ा ताकि समाज में किसी भी दबके को ये ना लगे की संविधान में उसकी बात नहीं गई है
लेकिन सबसे ज्यादा विवादित मुद्दा रहा संविधान को किस भाषा में लिखा जाना है किस भाषा को राष्ट्रभाषा के दर्ज देना है इसलिए कहा सभा में एक मत पर आना थोड़ा मुश्किल ग रहा था क्योंकि दक्षिण के रिप्रेजेंटेटिव पर इसका अपना विरोध था 1965 तक अंग्रेजी में कामकाज पर बनी थी सहमति रामचंद्र गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी में जगह लिखा गया है की मद्रास का रिप्रेजेंट कर रहे ट के कर्मचारी ने कहा की अगर अप के दोस्त हिंदी साम्राज्यवाद की बात करें
तो हमारी यानी दक्षिण भारतीयों की समस्याएं और ना बढ़ाएं उन्होंने कहा अप की मेरे दोस्त पहले ते करने की उन्हें अखंड भारत चाहिए हिंदी भारत लंबी बहस के बाद इस सभा फैसला पर पहुंची की भारत की राजभाषा हिंदी देवनागरी लिपि होगी लेकिन संविधान लागू होने के 15 साल बाद यानी 1965 तक सभी आज के कम अंग्रेजी भाषा में किया जाएंगे फिर आया 1965 का साल उसे समय लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे
और व्यक्तिगत रूप से हिंदी के हिमायती थे उन्होंने हिंदी को देश की भाषा बनाने का निर्णय ले लिया था हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्ज देने की कोशिश की गई तो दक्षिण भारतीय राज्यों में विरोध बाढ़ गया ये विरोध तेज हुआ इसके चलते हिंसा होने लगी इसमें दो लोगों की मौत हो गई दरअसल तमिलनाडु में हिंदी को लेकर विरोध 1937 से रहा है
जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास प्रांत में हिंदी को लाने का समर्थन किया पर द्रव्यमान कश्यगम तक ने इसका विरोध किया लेकिन 1965 में जब शास्त्री जी ने इस फैसला को ले लिया तो लोग हिंसक हो गए इसे देखते हुए कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने लचीला रूप दिखाए और ऐलान किया की राज अपने यहां होने वाले सरकारी कामकाज के लिए कोई भी भाषा चुन सकता है फैसला में कहा गया की सेंट्रल लेवल पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषण का इस्तेमाल किया जाएगा और इस तरह हिंदी कड़े विरोध के बाद देश की सिर्फ राजभाषा बनकर र गई राष्ट्रभाषा नहीं बन पी ये बात अलग है की कई स्कूली किताबें में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बता दिया जाता है जो की गलत है क्योंकि भारत की कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है
भारतीय संविधान में किसी को भी राष्ट्रीय भाषा का दर्ज प्राप्त नहीं है राजभाषा विभाग द्वारा हिसाब किया गया है की हिंदी के साथ-साथ ही अंग्रेजी को भी सांसद और केंद्र में कामकाज के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है इसके अलावा राज्यों को विधायकों के तहत अपनी भाषा को ते करने का अधिकार है जिसकी चलते भारत में 22 भाषण को ऑफिशल दर्ज मिला हुआ है जी अंग्रेज और हिंदू शामिल है अलग-अलग मैकोन पर अदालत द्वारा हिसाब किया गया है
की इन सभी भाषण को बराबरी का दर्ज से और कोई भी भाषा किसी भी दूसरी भाषा से कम या ज्यादा नहीं है गुहा की लिखी किताब में एक और दिलचस्पॉट किस्सा है रेडियो पर लाल बहादुर शास्त्री के सहन घोषणा के बाद एक बार फिर जब भी मामला सांसद में उठा तो एंग्लो भारतीय मेंबर फ्रैंक एंथोनी ने अंग्रेजी को स्वीकार नहीं करने के हिंदी भाषियों की आशाषाणुता पर चिंता जुदाई इसके जवाब में जैविक कृपलानी ने मजाकिया अंदाज में कहा की फ्रैंक को भारत में अपनी भाषा अंग्रेजी के खत्म होने की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि अब तो हमारे बच्चे बच्चे भी हम पापा नहीं मम्मी पापा बोलने लगे हैं
यहां तक की हम अपने कुत्तों से भी अंग्रेजी में बात करते हैं अपने पर जमा चुकी अंग्रेजी पर कृपलानी तंज करते हुए कहा एंथोनी को विश्वास की इंग्लैंड से अंग्रेजी गायब हो शक्ति है लेकिन भारत से कभी नहीं दक्षिण भारतीय क्यों करते हिंदी का विरोध विशेषज्ञों कहना है की विरोध प्रदर्शन इसलिए किया जाता है की इसकी बिना हिंदी को संरक्षण देने वाले लोग मजबूत हो जाते दरअसल तमे अपनी पहचान को अन्य लोगों की तुलना में अधिक गंभीरता से लेते हैं तमिल भाषा और संस्कृति से प्यार करने वाली ये लोग टोपी गई भाषा पर मोर उड़ते हैं सिर्फ बातें होती हैं
कंक्रीट कम नहीं होता वरिष्ठ कवि और हिंदी के प्रोफेसर सरोज कुमार ने हिंदी के राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर व्यवहार कहा की जो लोग हिंदी के पक्षधर हैं इनका में सिर्फ बात करते हैं लेकिन हिंदी के उत्थान और उसके प्रसार पर कम नहीं करते यही नहीं हमारे देश की बड़ी-बड़ी संस्थाएं बड़े-बड़े सिद्ध लोगवा राजनीति के हिंदी की आवाज उठाते हैं
लेकिन क्या इतने वर्षों में साइंस की किताबें और साइंटिफिक रिसर्च हिंदी में भी न्यायालय के निर्णय क्या हिंदी में हो गए जब तक ठोस तरीके से हिंदी के प्रसार उसके इस्तेमाल पर जोर नहीं दिया जाएगा तब तक सिर्फ हिंदी का सपोर्ट बन्ना बेईमानी है इस पर प्रैक्टिकल कम किया जाना चाहिए हां ये जरूर है की हिंदी राष्ट्रभाषा थी और रहेगी क्योंकि ये बाटी हुई दरिया की तरह है करण ये है की इसमें दूसरी भाषण की शब्दों का समावेश होता है तो ये थे वो करण जिसके वजह से हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पायी