यहूदी और मुस्लिम धर्म लगभग एक समान है फिर भी यहूदी और मुसलमान एक-दूसरे की जान के दुश्मन क्यों हैं? ईसाई धर्म की उत्पत्ति भी यहूदी धर्म से हुई है, लेकिन दुनिया अब ईसाई और मुसलमानों के बीच जारी जंग से तंग आ चुकी है। तीनों ही धर्म एक दूसरे के खिलाफ हैं, जबकि तीनों ही धर्म मूल रूप में एक समान ही है।
सन् 613 में जब हजरत मुहम्मद ने उपदेश देना शुरू किया था तब मक्का, मदीना सहित पूरे अरब में यहूदी धर्म, पेगन, मुशरिक, सबायन और ईसाई आदि धर्म थे। लोगों ने इस उपदेश का विरोध किया। विरोध करने वालों में यहूदी सबसे आगे थे। यहूदी नहीं चाहते थे कि हमारे धर्म को बिगाड़ा जाए, जबकि हज़रत मुहम्मद का मानना था की वे धर्म को सुधार रहे थे। बस यही से फसाद और युद्ध की शुरुआत हुई।
सन् 622 में हजरत अपने फॉलोअर्स के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच कर गए जिसे लोग ‘हिजरत’ भी कहते है। मदीना में हजरत ने लोगों को इक्ट्ठा करके एक इस्लामिक फौज तैयार की और फिर शुरू हुआ जंग का सफर। खंदक, खैबर, बदर और फिर मक्का को फतह कर लिया गया।
सन् 630 में पैगंबर साहब ने अपने अनुयायियों के साथ कुफ्फार-ए-मक्का के साथ जंग की, जिसमें अल्लाह ने गैब (चमत्कार) से अल्लाह और उसके रसूल की मदद फरमाई। इस जंग में इस्लाम के मानने वालों की फतह हुई। इस जंग को जंग-ए-बदर कहते हैं।
632 ईसवी में हजरत मुहम्मद सल्लाहाहू ने दुनिया से पर्दा कर लिया। उनकी वफात के बाद तक लगभग पूरा अरब इस्लाम के सूत्र में बंध चुका था। इसके बाद इस्लाम ने यहूदियों को अरब से बाहर खदेड़ दिया। वह इसराइल और मिस्र में सिमट कर रह गए।और एमएम हजरत मुहम्मद सल्ल. की वफात के मात्र सौ साल में इस्लाम पूरे अरब जगत का धर्म बन चुका था। 7वीं सदी की शुरुआत में इसने भारत, रशिया और अफ्रीका का रुख किया और मात्र 15 से 25 वर्ष की जंग के बाद आधे भारत, अफ्रीका और रूस पर कब्जा कर लिया।
पहला धर्मयुद्ध : अगर 1096-99 में ईसाई फौज यरुशलम को तबाह कर ईसाई साम्राज्य की स्थापना नहीं करती तो शायद इसे प्रथम धर्मयुद्ध (क्रूसेड) नहीं कहा जाता। जबकि यरुशलम में मुसलमान और यहूदी अपने-अपने इलाकों में रहते थे। इस कत्लेआम ने मुसलमानों को सोचने पर मजबूर कर दिया।
जैंगी के नेतृत्व में मुसलमान दमिश्क में एकजुट हुए और पहली दफा अरबी भाषा के शब्द ‘जिहाद’ का इस्तेमाल किया गया। जबकि उस दौर में इसका अर्थ संघर्ष हुआ करता था। इस्लाम के लिए संघर्ष नहीं, लेकिन इस शब्द को इस्लाम के लिए संघर्ष बना दिया गया।
दूसरा धर्मयुद्ध : 1144 में दूसरा धर्मयुद्ध फ्रांस के राजा लुई और जैंगी के गुलाम नूरुद्दीन के बीच हुआ। इसमें ईसाइयों को पराजय का सामना करना पड़ा। 1191 में तीसरे धर्मयुद्ध की कमान उस काल के पोप ने इंग्लैड के राजा रिचर्ड प्रथम को सौंप दी जबकि यरुशलम पर सलाउद्दीन ने कब्जा कर रखा था। इस युद्ध में भी ईसाइयों कोबुरे दिन देखना पड़े। इन युद्धों ने जहां यहूदियों को दर-बदर कर दिया, वहीं ईसाइयों के लिए भी कोई जगह नहीं छोड़ी।
लेकिन इस जंग में एक बात की समानता हमेशा बनी रही कि यहूदियों को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने देश को छोड़कर लगातार दरबदर रहना पड़ा जबकि उनका साथ देने के लिए कोई दूसरा नहीं था। वह या तो मुस्लिम शासन के अंतर्गत रहते या ईसाइयों के शासन में रह रहे थे।
इसके बाद 11वीं शताब्दी के अंत में शुरू हुई यरुशलम सहित अन्य इलाकों पर कब्जे के लिए लड़ाई 200 साल तक चलती रही, जबकि इसराइल और अरब के तमाम मुल्कों में ईसाई, यहूदी और मुसलमान अपने-अपने इलाकों और धार्मिक वर्चस्व के लिए जंग करते रहे। इस दौर में इस्लाम ने अपनी पूरी ताकत भारत में झोंक दी।
लगभग 600 साल के इस्लामिक शासन में इसराइल, ईरान, अफगानिस्तान, भारत, अफ्रीका आदि मुल्कों में इस्लाम स्थापित हो चुका था। लगातार जंग और दमन के चलते विश्व में इस्लाम एक बड़ी ताकत बन गया था। इस जंग में कई संस्कृतियों और दूसरे धर्म का अस्तित्व मिट चुका था।
17वीं सदी की शुरुआत में विश्व के उन बड़े मुल्कों से इस्लामिक शासन का अंत शुरू हुआ जहां इस्लाम थोपा जा रहा था। यह था अंग्रेजों का वह काल जब मुसलमानों से सत्ता छीनी जा रही थी। ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हुआ। उसी दौरान अरब राष्ट्रों में पश्चिम के खिलाफ असंतोष पनपा और वह ईरान तथा सऊदी अरब के नेतृत्व में एक जुट होने लगे।
बहुत काल तक दुनिया चार भागों में बंटी रही, इस्लामिक शासन, चीनी शासन, ब्रिटेनी शासन और अन्य। फिर 19वीं सदी कई मुल्कों के लिए नए सवेरे की तरह शुरू हुई। कम्यूनिस्ट आंदोलन, आजादी के आंदोलन चले और सांस्कृतिक संघर्ष बढ़ा। इसके चलते ही 1939 द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ जिसके अंत ने दुनिया के कई मुल्कों को तोड़ दिया तो कई नए मुल्कों का जन्म हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध में यहूदियों को अपनी खोई हुई भूमि इसराइल वापस मिली। यहां दुनिया भर से यहूदी फिर से इकट्ठे होने लगे। इसके बाद उन्होंने मुसलमानों को वहां से खदेड़ना शुरू किया जिसके विरोध में फिलिस्तीन इलाके में यासेर अराफात का उदय हुआ। फिर से एक नई जंग की शुरुआत हुई। इसे नाम दिया गया फसाद और आतंक।
इस जंग का स्वरूप बदलता रहा और आज इसने मक्का, मदीना और यरुशलम से निकलकर व्यापक रूप धारण कर लिया है। इसके बाद शीतयुद्ध और उसके बाद सोवियत संघ के विघटन से इस्लाम की एक नई कहानी लिखी गई ‘आतंक की दास्तां’। इस दौर में मुस्लिम युवाओं ने ओसामा के नेतृत्व में आतंक का पाठ पढ़ा।
यहूदी और इस्लाम धर्म में समानता…
- यहूदी और मुस्लिम धर्म में पूर्ण समानता माने तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहना चाहिए कि इस्लाम 90 प्रतिशत यहूदी धर्म है। यहूदी धर्म में जो भी अच्छी बातें थी वह सब इस्लाम ने ग्रहण की।
- इस्लाम की एक ईश्वर की परिकल्पना, खतना, बुतपरस्ती का विरोध, नमाज, हज, रोजा, जकात, सूदखोरी का विरोध, कयामत, कोशर (हराम-हलाल), पवित्र दिन (सब्बब), उम्माह जैसी सभी बातें यहूदी धर्म से ली गई हैं। पवित्र भूमि, धार्मिक ग्रंथ, अंजील, हदीस और ताल्मुद की कल्पना एक ही है।
- इस्लाम में आदम, हव्वा, इब्राहीम, नूह, दावूद, इसाक, इस्माइल, इल्यास, सोलोमन आदि सभी ऐतिहासिक और मिथकीय पात्र यहूदी परंपरा के हैं।
- यरुशलम के लिए जारी है जंग : यरुशलम में लगभग 1204 सिनेगॉग, 158 गिरजें, 73 मस्जिदें, बहुत सी प्राचीन कब्रें, 2 म्यूजियम और एक sanctuary है। दरअसल यह पवित्र शहर यहूदियों, मुसलमानों और ईसाइयों के लिए बहुत महत्व रखता है। यहीं पर तीनों धर्मों के पवित्र टेंपल हैं और तीनों ही धर्म के लोग इस पर अपना अधिकार चाहते हैं।
यरुशलम के मुस्लिम इलाके में स्थित 35 एकड़ क्षेत्रफल में फैले नोबेल sanctuary में ही अल अक्सा मस्जिद है जो मुसलमानों के लिए मदीना, काबा के बाद तीसरा पवित्र स्थान है, क्योंकि इसी स्थान से हजरत मुहम्मद स्वर्ग गए थे।